महाराणा सांगा का पूरा नाम संग्रामसिंह था। रायमल के बाद राणा सांगा सन् 1509 ई. में चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे तथा अपने शौर्य से केवल मेवाड़ के ही नहीं अपितु भारत के इतिहास में अपनी स्मृति छोड़ गये। महाराणा सांगा ने दिल्ली के सिकन्दर लोदी, गुजरात के महमूदशाह बेगड़ा और मालवा के नसीरूद्दीन खिलजी को अनेक बार परास्त किया। उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग 16 युद्ध यवनों के विरूद्ध लड़े और उनमें विजय प्राप्त कर अपने राज्य का विस्तार किया। महाराणा सांगा का अन्तिम युद्ध बादशाह बाबर के साथ बयान के साथ बयान के खानवा गाँव के पास सन् 1527 ई. में हुआ। इस युद्ध में महाराणा सांगा मूर्छित हुए थे तथा परिस्थितिवश विजय बाबर की हुई। बाबर को इस युद्ध में भारत की एक बहुत बड़ी शक्ति का सामना करना पड़ा था। बाबर ने महाराणा सांगा के बारे में लिखा है
"राणा सांगा अपनी बहादुरी और तलवार के बल पर बहुत बड़ा हो गया था। मालवा, दिल्ली और गुजरात का कोई अकेला सुलतान उसे हाराने में असमर्थ था। उसके राज्य की वार्षिक आय दस करोड़ थी। उसकी सेना में एक लाख सैनिक थे। महाराणा सांगा के तीन उत्तराधिकारी वैसे ही योग्य होते तो मुगलों का राज्य भारतवर्ष में जमने नहीं पाता।"
खानवा के युद्ध से सांगा को मूर्छित अवस्था में हटाया गया था। चेत आने पर युद्ध से इस प्रकार उठा लाने पर उन्हें बड़ा क्रोध व दुःख हुआ। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जीते जी मैं चित्तौड़ नहीं जाऊँगा। उन्होंने फिर मुगलों के विरुद्ध युद्ध की तैयारी शुरू कर दी, किन्तु उनके साथी राजपुतों ने इसका विरोध किया और उन्हें विष दे दिया जिसके फलस्वरूप सन् 1528 ई. में उनकी मृत्यु का होना माना जाता है।
महाराणा सांगा ने अपना सारा जीवन युद्धक्षेत्र में भी बिताया। उनके शरीर पर 80 घावों के निशान थे। अपने भाई पृथ्वीराज के साथ के झगड़े में उनकी आँख बच में ही फूट गयी थी तथा इब्राहीम लोदी के साथ दिल्ली के युद्ध में उनका एक हाथ कट गया और वे एक पैर से लंगड़े हो गये थे। महाराणा सांगा के सात पुत्र थे.... भोजराज, कर्णसिंह, रतनसिंह, विक्रमदित्य, उदयसिंह, पर्वतसिंह और कृष्णसिंह। इनमें से भोजराज, कर्णसिंह, पर्वतसिंह और कृष्णसिंह की मृत्यु तो महाराणा सांगा के जीवनकाल में ही हो गयी थी। अतः उनके बाद चित्तौड़ की गद्दी पर रतनसिंह (द्वितीय) बैठे किन्तु अल्पकाल में ही उनकी मृत्यु हो गई थी।
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